Saturday, March 31, 2012

पहचान लिया श्रीनगर ने मुझे पर शायद मैं ही ना पहचान पाया

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मैं आया था वापस श्रीनगर और श्रीनगर तुमने मुझे पहचान ही लिया तुरंत... लगा लिया मुझे अपने गले से जैसे कई बरस मिलने के बाद कोई माँ अपने बेटे को सीने से लगा लेती है... पर मैं ही ना पहचान पाया तुम्हे... मेरा कसूर नहीं है इसमें, बरस भी तो काफी बीत गये हैं... जैसे भूल जाता है कोई बच्चा अपने बचपन के चेहरे, मैं भी भूल गया तुझे... पर अब धीरे धीरे बूढी लकीरों के पीछे से तेरी आँखों की चमक याद आ रही है मुझे... कितना बदल दिया है तुमको शायद विकास के लिए या शायद बदलाव संसार का नियम है, उस नियम की खातिर... कैसे पहले जब भी मैं नदी की तरफ आता था स्कूल से भागकर तो लहरों की आवाज़ दूर से ही सुने देती थी जैसे बुला रही हो मुझे... मैं फिर से भाग कर आया पर इंतज़ार करता रहा आवाज़ का की अभी बुलाएगी ये नदी मुझे... फिर से मैं बचपन जियूँगा...  पर अब वो आवाज़ दब गयी है कहीं विकास के शोर मैं... घरों क बीच से होते हुए मैं वापस नदी से जा मिला... घंटों बैठा रहा, बातें करता रहा... मैंने सुनाई अपनी कहानी उसे, कभी खुशी के किस्से तो कभी दुःख के, कभी कुछ पाने की कहानी और कुछ खोने की... उसने भी कल-कल करते सारी बातें सुन ली, अपने पास बिठाया, मेरे पैरों पे ठंडा पानी लगाया... पुछा, अब आराम है? मैंने कुछ नहीं कहा बस देखता रहा शून्य मैं... उसने भी फिर कुछ नहीं कहा... बस मेरे पास बहती रही... चुप चाप... शायद वो भी रो रही होगी पर कल कल आवाज़ के सिवा और क्या कह सकती है वो... बस सहलाती रही पाऊँ को... और समेटती रही सारे दुःख सारी पीड़ा... पर श्रीनगर मैं पहचान भले ही ना पाया हूँ पर भूला नहीं तुझे... मैं आज भी लौट के आया हूँ और आता रहूँगा...